क्या वेदों में भगवान का उल्लेख है?
जय श्री कृष्ण प्रिय पाठकों, कैसे हैं आप? आशा करते हैं कि आप सुरक्षित और प्रसन्नचित्त होंगे।
आज हम एक अत्यंत गूढ़ और गम्भीर प्रश्न पर चर्चा करेंगे, जिसका उत्तर वेदों में ही छिपा है। प्रश्न है- क्या वेदों में भगवान के अस्तित्व का स्पष्ट उल्लेख है? अगर हाँ, तो किस रूप में?
यह प्रश्न कई धार्मिक जिज्ञासुओं, शोधकर्ताओं और साधकों के मन में बार-बार उठता है। वेद हमारे सनातन धर्म का मूल आधार हैं, लेकिन उनमें ईश्वर को किस रूप में देखा गया है, यह जानना आवश्यक है।
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चित्र में वैदिक ऋषि वेद पढ़ते हुए भगवान के निराकार, सर्वव्यापी स्वरूप को दर्शाते हैं, जैसा कि वेदों में वर्णित है। |
वेद क्या हैं?
आइये सबसे पहले समझते हैं कि वेद क्या हैं। वेद चार हैं-
1. ऋग्वेद
2. यजुर्वेद
3. सामवेद
4. अथर्ववेद
ये चारों वेद मानवता को दिव्य ज्ञान प्रदान करने वाले शाश्वत ग्रंथ हैं। वेदों को श्रुति कहा जाता है अर्थात् जो सुने गए थे। इनका ज्ञान परमात्मा ने ऋषियों के हृदय में प्रकट किया, न कि किसी मनुष्य ने लिखा।
क्या वेदों में भगवान का उल्लेख है?
हाँ, वेदों में भगवान का स्पष्ट उल्लेख है। लेकिन वेदों में भगवान को मूर्ति या नाम से नहीं, बल्कि गुण, स्वरूप और सर्वव्यापकता के रूप में बताया गया है।
वेदों में भगवान को एकम् सत् विप्राः बहुधा वदन्ति (ऋग्वेद 1.164.46) कहा गया है, जिसका अर्थ है —
सत्य एक ही है, लेकिन ज्ञानी उसे अलग-अलग नामों से पुकारते हैं।
इसका अर्थ है कि ईश्वर एक ही है, लेकिन उसे कोई अग्नि,कोई इंद्र, कोई वायु, कोई सूर्य, कोई प्रजापति कहकर संबोधित करता है। ये सब उस एक परब्रह्म के ही विविध रूप हैं।
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वेदों में भगवान के स्वरूप का वर्णन
वेदों में भगवान को जिन रूपों में बताया गया है, वे अद्वितीय और गहराई से भरे हुए हैं,जो इस प्रकार हैं -
1. निर्गुण ब्रह्म (Nirguna Brahman)
वेदों में ईश्वर को निर्गुण, अर्थात् निराकार, निरंजन, बिना किसी रूप-रंग या गुण के भी कहा गया है।
उदाहरण
नेति नेति (बृहदारण्यक उपनिषद 4.5.15)
अर्थात् यह नहीं, वह नहीं। यह ईश्वर के स्वरूप की परिभाषा से परे होने का संकेत है।
अजातम्, अजम्, अनिर्वचनीयम्
अर्थात् वह न पैदा हुआ है, न उसका कोई जन्म है, और न ही उसे पूरी तरह शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है।
यह दृष्टिकोण अद्वैत वेदांत की ओर इशारा करता है, जहां ईश्वर को एक निराकार, सर्वव्यापक सत्ता के रूप में देखा जाता है।
2. सगुण ब्रह्म (Saguna Brahman)
हालाँकि वेदों में ईश्वर को निराकार बताया गया है, लेकिन कई स्थलों पर सगुण रूप, यानी गुणों से युक्त ईश्वर का भी वर्णन है, जिससे भक्ति उत्पन्न होती है।
उदाहरण
ऋग्वेद 10.121.1
कस्मै देवाय हविषा विधेम?
अर्थ- किस देवता को हम अपनी आहुति समर्पित करें?
इसके उत्तर में अगले मंत्रों में बताया गया है कि वही देवता-प्रजापति, जिसने सबकी रचना की, सबके प्राणों में स्थित है, वही पूजनीय है।यह संकेत करता है कि सृष्टि का नियंता कोई सर्वोच्च सत्ता है-और वही ईश्वर है।
3. ईश्वर के विशेष नाम और प्रतीकात्मक रूप
वेदों में भगवान के कुछ नामों का वर्णन विशेष रूप से मिलता है, जो आज के हिंदू धर्म में देवताओं के रूप में पूजित हैं:
अग्नि- (ऋग्वेद का प्रथम देवता)
अग्नि को यज्ञ का वाहक और देवताओं तक आहुति पहुंचाने वाला बताया गया है।
परन्तु अग्नि केवल अग्नि तत्त्व नहीं है, वह ईश्वर का प्रकाश रूप है।
इंद्र -
इंद्र को शक्ति, विजय और प्रकाश का प्रतीक माना गया है।
यह भगवान के शासन और पराक्रम का प्रतिनिधित्व करता है।
वायु और वरुण -
वायु को गति, और वरुण को अंतरात्मा का अधिष्ठाता कहा गया है।
वरुण सब देखता है, सब जानता है - यह ईश्वर की सर्वज्ञता को दर्शाता है।
इन सभी रूपों के माध्यम से वेद यह समझाते हैं कि ईश्वर प्रकृति के हर तत्व में व्याप्त है, और वही सबका मूल कारण है।
ईश्वर के गुण – वेदों की दृष्टि से
वेदों में ईश्वर के कुछ प्रमुख गुण बताए गए हैं, जो निम्नलिखित हैं:
1. सर्वव्यापक (Omnipresent) – वह हर कण में विद्यमान है।
2. सर्वज्ञ (Omniscient) – वह सब जानने वाला है, तुम्हारे विचारों तक को जानता है।
3. सर्वशक्तिमान (Omnipotent) – उसकी शक्ति से ही यह ब्रह्मांड चल रहा है।
4. अजन्मा और अनश्वर – उसका कोई जन्म नहीं, मृत्यु नहीं।
5. न्यायकारी – वह सभी प्राणियों को उनके कर्म के अनुसार फल देता है।
6. दयालु और कृपालु – वह भक्त की पुकार अवश्य सुनता है।
वेदों में “ओम्” (ॐ) का महत्व
वेदों में "ॐ" को परमात्मा का प्रतीक माना गया है।
ओं इत्येतद्ब्रह्म — (माण्डूक्य उपनिषद)
अर्थ: ॐ ही ब्रह्म है।
यह एक ऐसा शब्द है जिसमें सम्पूर्ण सृष्टि और ईश्वर का सार समाया हुआ है।
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वेदों की भाषा – रहस्यात्मक या स्पष्ट?
कई लोग कहते हैं कि वेदों में भगवान का वर्णन रहस्यमयी और प्रतीकात्मक है, मूर्त रूप में नहीं। यह बात सही है। वेद ईश्वर के गहराईभरे वर्णन को सटीक रूप में प्रतीकों और तत्वों के माध्यम से प्रकट करते हैं।
इसका कारण यह है कि ईश्वर को सीमित शब्दों में बांधा नहीं जा सकता। वह शब्दातीत है।
इसलिए ऋषियों ने कहा-
यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह — (तैत्तिरीय उपनिषद)
अर्थ: जहां वाणी और मन नहीं पहुंच सकते, वही परम ब्रह्म है।
क्या वेद मूर्तिपूजा की अनुमति देते हैं?
वेदों का मूल स्वरूप मूर्तिपूजा को आवश्यक नहीं मानता, लेकिन यह ईश्वर की उपासना को आवश्यक मानता है — चाहे वह किसी रूप में हो।
भगवान के प्रति प्रेम, श्रद्धा, समर्पण- यही मुख्य भाव है। मूर्ति माध्यम हो सकती है, लेकिन वेद उसके पार जाने को प्रेरित करते हैं।
वेदों में ईश्वर की अनुभूति कैसे करें?
वेद कहते हैं कि ईश्वर को ज्ञानेन्द्रियों से नहीं, बल्कि आंतरिक साधना, श्रद्धा और सत्य जीवन से जाना जा सकता है। यानी-
- जो सत्य बोलता है,
- जो प्राणी मात्र में भगवान को देखता है,
- जो अहंकार से मुक्त होकर सेवा करता है,
- वही वेदों के अनुसार भगवान के सच्चे मार्ग पर है।
अंतिम भाव
वेदों में भगवान को अनेक नामों से पुकारा गया है, पर उसका स्वरूप एक ही है -
एकं ब्रह्म द्वितीयं नास्ति - केवल एक ही ब्रह्म है, दूसरा नहीं।
इसलिए हम चाहे किसी भी नाम से पुकारें - राम, कृष्ण, शिव, विष्णु, नारायण, या ओम् -
वह परम तत्व एक ही है, जो समस्त जगत का मूल है।
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अपने विचार नीचे कमेंट में जरूर बताएं- आप ईश्वर को किस रूप में अनुभव करते हैं?
ॐ तत्सत्। जय श्रीराम। जय श्रीकृष्ण।