आसुरी दुर्गा: रहस्य, स्वरूप और दिव्य-रौद्र शक्ति का महत्व

आसुरी दुर्गा: रहस्य, स्वरूप और दिव्य-रौद्र शक्ति का महत्व 


Devi Durga in Asuri Roudra and Divya Shant form together showing the balance of divine and fierce energy.
एक ही शक्ति- आसुरी और दिव्य दुर्गा: माँ का रौद्र स्वरूप अधर्म का नाश करता है, और करुणामयी स्वरूप भक्तों को आशीर्वाद देता है।


हर हर महादेव! प्रिय पाठकों, कैसे है आप लोग, आशा करते हैं आप स्वस्थ और प्रसन्नचित्त होंगे। 

मित्रों! भारतवर्ष में देवी दुर्गा को जगत्जननी, शक्ति स्वरूपिणी और सम्पूर्ण ब्रह्मांड की अधिष्ठात्री शक्ति माना जाता है।

वह एक ओर ममतामयी माता हैं, तो दूसरी ओर उग्र चंडी भी हैं।

इसीलिए उनके अनेक रूप माने जाते हैं - कहीं वह शांत, करुणामयी, सौम्य हैं तो कहीं रौद्र और संहारक हैं।

इन्हीं रूपों के बीच एक रहस्यमयी पक्ष आता है - आसुरी दुर्गा।

यह शब्द सुनते ही बहुत से लोग चौंक जाते हैं - देवी दुर्गा और आसुरी?

क्या यह विरोधाभास नहीं है?

आइए, इसे विस्तार से समझते हैं।

आसुरी दुर्गा का अर्थ क्या है?

सबसे पहले आसुरी शब्द के अर्थ को समझना जरूरी है।

आसुरी का सीधा संबंध असुरों से है।

असुर - अर्थात वे शक्तिशाली जीव जो देवताओं के विरोधी होते हैं और जिनका स्वभाव तामसिक तथा उग्र होता है।

परंतु सनातन दर्शन में हर शक्ति के दो पहलू होते हैं - सकारात्मक और नकारात्मक, रजोगुण और तमोगुण का खेल।

दुर्गा का अर्थ ही है -दुर्ग यानी किला या कष्ट को नष्ट करने वाली।

देवी दुर्गा वह शक्ति हैं जो दुर्गम संकटों को काट देती हैं।

लेकिन वही शक्ति यदि रौद्रतम या नियंत्रित न हो तो असुरत्व में बदल सकती है।

इसीलिए तांत्रिक साधना में कहा गया कि शक्ति को साधे बिना उपयोग में लाना अनिष्टकारी हो सकता है।

इसी स्वरूप को ही कुछ तांत्रिक पंथों में आसुरी दुर्गा कहा जाता है।

यह कोई अलग देवी नहीं है, बल्कि देवी दुर्गा के भीतर छिपी उग्रतम ऊर्जा का संकेत है, जो विशेष साधनाओं द्वारा जागृत की जाती है।

यह शक्ति साधक को अपार सामर्थ्य देती है पर बिना नियम या दीक्षा के यह विनाशक हो सकती है।

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ग्रंथों में कहां आता है आसुरी दुर्गा का संकेत?

1. दुर्गा सप्तशती (मार्कण्डेय पुराण)

दुर्गा सप्तशती में देवी के अनेक उग्र रूपों का वर्णन है — जैसे महिषासुरमर्दिनी, चामुंडा, कात्यायनी, कालरात्रि।

यह सभी रूप असुरों के वध के लिए प्रकट हुए।

यही रौद्र रूप आसुरी स्वरूप की ओर इशारा करते हैं कि देवी अपनी शक्ति को रजस और तमस गुणों से प्रचंड बना लेती हैं।

हालांकि यहाँ आसुरी दुर्गा नाम से सीधे कोई विशेष रूप नहीं है, पर संकेत हैं कि शक्ति का असुरों से गहरा संबंध भी है।

2. कालीका पुराण, देवी भागवत, तंत्रसार

इन तांत्रिक ग्रंथों में रात्रिकालीन साधना, शव साधना, श्मशान साधना आदि में देवी के उग्रतम रूपों का वर्णन आता है।

भैरवी, चामुंडा, धूमावती, शीतला — ये सब शक्तियाँ उग्र हैं और तांत्रिक अनुष्ठानों में नियंत्रित की जाती हैं।

इनमें से कुछ साधक इन्हें “आसुरी दुर्गा” के नाम से भी बुलाते हैं क्योंकि ये साधना का तामसिक पक्ष दर्शाती हैं।

3. लोक मान्यताएँ

कुछ ग्रामीण अंचलों में, विशेषकर श्मशान या शिकार देवी मंदिरों में, रात्रि को देवी की उग्र उपासना होती है।

कहीं-कहीं देवी की प्रतिमा को रक्त से सिंचित करने की भी परंपरा है।

यह सब दर्शाता है कि लोग देवी के इस स्वरूप को भय और शक्ति दोनों के रूप में मानते हैं।

कौन करते हैं इसकी पूजा?

सामान्य गृहस्थ लोग देवी के दिव्य, सत्वगुणी स्वरूप की ही पूजा करते हैं- जैसे महालक्ष्मी, महासरस्वती, महाकाली।

आसुरी दुर्गा की साधना विशेष तांत्रिक पंथों तक सीमित रहती है -श्मशान साधक, भैरवी उपासक, अघोरी या कुछ तांत्रिक इसे विशेष तांत्रिक अनुष्ठानों में नियंत्रित करते हैं।

ऐसे स्वरूप का पूजा-पाठ बिना दीक्षा, बिना गुरु-मार्गदर्शन के नहीं किया जाता क्योंकि अनियंत्रित उर्जा साधक के जीवन में भय, पागलपन या अनिष्ट ला सकती है।

आसुरी दुर्गा के स्वरूप का वर्णन

तांत्रिक ग्रंथों और साधक अनुभवों में इस स्वरूप को कुछ इस प्रकार बताया जाता है-

  • काले या गहरे रक्तवर्ण की देह।
  • बिखरे बाल, त्रिनेत्र से निकलती अग्नि-ज्वाला।
  • हाथों में खड्ग, त्रिशूल, खप्पर (मानव खोपड़ी का पात्र)।
  • कपालमाला या नरमुंड माला पहने हुए।
  • शवासन या श्मशान में विराजमान।
  • भूत-प्रेत, डाकिनी-शाकिनी जैसे गणों से घिरी हुई।
  • रक्तपान या मांस भक्षण की प्रतीकात्मक मान्यता भी कहीं-कहीं मिलती है।

यह स्वरूप डरावना प्रतीत हो सकता है परंतु यह शक्ति विनाश का प्रतीक है -अधर्म, असुरत्व और अज्ञान का नाश करने के लिए ही यह उग्रता जरूरी मानी जाती है।

दिव्य और रौद्र दुर्गा में क्या अंतर है?

अब आइए समझते हैं कि देवी के दिव्य स्वरूप और रौद्र (या आसुरी) स्वरूप में क्या अंतर है।

यह भेद हमारे जीवन को सही दृष्टि देता है कि कब किस शक्ति का आह्वान करना उचित है।

दिव्य दुर्गा -सत्वगुणी स्वरूप

देवी का करुणामयी, मातृमयी, कल्याणकारी रूप।

सिंहवाहिनी, स्वर्ण आभा युक्त, चार, आठ या दस भुजाएँ।

हाथों में शंख, चक्र, कमल, गदा, त्रिशूल, तलवार, अभय और वर मुद्रा।

यह स्वरूप पालन-पोषण, रक्षा और समृद्धि के लिए पूजा जाता है।

नवरात्रि, दुर्गा अष्टमी, दुर्गा सप्तशती, गृहस्थ पूजा में यही स्वरूप वंदनीय है।

लाभ

शांति, सुख, धन-धान्य, ज्ञान, मोक्ष मार्ग में सहायता।

रौद्र दुर्गा-  रजस-तमस प्रधान स्वरूप

देवी का उग्रतम, संहारकारी, रौद्र रूप।

महिषासुरमर्दिनी, चंडी, कात्यायनी, कालरात्रि, भद्रकाली आदि इसके उदाहरण हैं।

बिखरे केश, रक्ताभ नेत्र, रक्तस्नात शरीर, नरमुंडमाला।

तांत्रिक साधनाओं में यह रूप शक्तिशाली माना जाता है - शत्रु दलन, भय निवारण, भूत-प्रेत बाधा मुक्ति में उपयुक्त।

लाभ

तत्काल शत्रु विनाश, कष्टों का उन्मूलन, नकारात्मक शक्तियों से सुरक्षा।

पर यह बिना योग्य साधना के हानिकारक भी हो सकता है।

क्यों आवश्यक है यह द्वैत?

सनातन परंपरा में शक्ति के तीन कार्य हैं- सृष्टि, स्थिति और संहार।

सृष्टि के लिए सरस्वती, स्थिति के लिए लक्ष्मी और संहार के लिए काली/चंडी या दुर्गा के उग्र स्वरूप पूजे जाते हैं।

यदि केवल पालन हो और पापियों का नाश न हो, तो अधर्म बढ़ता जाएगा।

इसीलिए देवी के दोनों रूप पूजनीय है। दिव्य रूप शांति देता है, रौद्र रूप अन्याय का अंत करता है।

क्या हमें डरना चाहिए?

नहीं। क्योंकि-

जो शक्ति जीवन देती है वही संकटों को हरती भी है।

यदि आप सही भावना, सही नियम और शुद्ध हृदय से देवी की पूजा करते हैं तो कोई भय नहीं।

आसुरी स्वरूप का अर्थ है- शक्ति का नियंत्रित प्रयोग।

यदि आप इस ऊर्जा का दुरुपयोग करेंगे तो यही शक्ति उल्टी भी पड़ सकती है।

आधुनिक संदर्भ में क्या यह प्रासंगिक है?

आज के युग में भी कई लोग तंत्र साधना करते हैं, कुछ लोग रात्रिकालीन अनुष्ठान में शक्तियों को नियंत्रित कर भूत-प्रेत बाधा निवारण, शत्रु नाश या तांत्रिक चिकित्सा तक करते हैं।

यहां तक कि नेपाल, असम, बंगाल, ओडिशा जैसे राज्यों में श्मशान साधना या काली साधना का बड़ा महत्व है।

परंतु यह आम गृहस्थ जीवन के लिए नहीं है।

आम भक्त माता के दिव्य रूप की उपासना करें, यही सर्वोत्तम है।

आम भक्त के लिए क्या करना उचित है?

दुर्गा सप्तशती का पाठ करें - अर्गला स्तोत्र, कीलक स्तोत्र के साथ।

महालक्ष्मी, महाकाली, महासरस्वती स्वरूप में पूजा करें।

किसी भी उग्र मंत्र या तांत्रिक विधि को बिना गुरु के न करें।

नवदुर्गा के सरल मंत्रों से साधना करें - जैसे ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।

हवन, दीपक, पुष्प, सुगंध से पूजा करें - भय न रखें, आस्था रखें।

समापन- शक्ति का मर्म

देवी दुर्गा के भीतर सम्पूर्ण ब्रह्मांड समाया है।

वह अपने हर भक्त के लिए माता हैं।

यदि आप श्रद्धा से पुकारेंगे तो उनका उग्र स्वरूप भी आपको आशीर्वाद देगा।

परंतु साधना में संतुलन जरूरी है - दिव्यता और रौद्रता दोनों का विवेक होना चाहिए।

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माता के चरणों में प्रार्थना

हे माँ दुर्गा!

आप अपने भक्तों को दिव्यता और शक्ति का सही ज्ञान दीजिए।

अपने करुणामयी स्वरूप से हमारी रक्षा कीजिए और अपने रौद्र स्वरूप से हमारे भीतर के अहंकार और अज्ञान का नाश कीजिए।

जय माता दी!

अंतिम मंत्र

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे

ॐ दुं दुर्गायै नमः

सर्व बाधा विनिर्मुक्तो धनधान्य सुख समन्वितः।

मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः॥

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धन्यवाद 

हर हर महादेव!

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